...

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!! मैं चलता रहा !!
पुष्प बेघर हुआ , मुरझा भी गया
रात बेबस हुई , बीत वो भी गयी
वंशी ठहरी हुई , स्वर भी बिगड़े हुए
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

तारे टूटने लगे , बारिश बाड़व हुई
प्रलय का भी , नया तांडव हुआ
उपल भारी हुए , सर पे लगने लगे
प्यास प्रकृति की मैं ,
रक्त से बुझाता गया ,,
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

वो जो था समर्पित सा मैं ,
बाद आंधी के तक मैं ठहरा रहा ,
संयम तनिक भी न डोला मग़र
धैर्य की ये कैसी परीक्षा हुई ,,
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

चरण गलने लगे ,
रक्तमय सारे करकंटक हुए ,
दृगों की दृष्टि भी ओझल हुई ,
टूटते टूटते मैं घायल हुआ ,
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

प्रकृति भी है , जो नाखुश बड़ी
क्या चाहिए उसे , क्या छीन बैठी है वो ,
विद्रोह निमंत्रण के अवसर में वो ,
सांसो को कैसे उजाड़ी है वो ,

प्रकृति काटती गयी , मैं कटता रहा
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

मैं चाहता था क्या , क्या छीना गया
मैं धूम्र के नाश में उड़ाता गया ,,
मैं जीता नही , मैं हारा नही ,
द्वंद कैसा ये पाला गया रात को ,,
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

छोड़ आया खुद ही , बची सांसो को
इससे ज्यादा भी , तुम चाहते हो क्या
कोई बाकी न ख्वाइश , न किसी की कदर
इस राख में भी , मैं जो बहता रहा
कदम लड़खड़ा गए , मैं चलता रहा !!

हाँ ! मैं चलता रहा !!

© निग्रह अहम् (मुक्तक )