...

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वो दौर आशिक़ी का..
वो दौर आशिक़ी का हम दोहरा न सके !
फिर किसी और को ये दिल थमा न सके !

ग़म-ए-फ़ुर्क़त में था कुछ सैलाब इतना,
डूब ही जाते हम सो आँसू बहा न सके !

इक मरासिम ने दिल ऐसा ज़ख़्मी किया,
राब्ता फिर किसी से हम बढ़ा न सके !

तन्हा रहने की हम को ‌ऐसी आदत लगी,
अपना...