...

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परछाई
मैं इंसान और तू मेरी परछाई,
मैं आश्चर्य में हूं तू क्यों साथ नहीं छोड़ती
मैं जहाँ भी जाऊँ तू पीछे पीछे रहती,
क्या तू थकती नहीं जो साथ साथ चलती?

आँख मिचौनि खेलकर मुझे हैरान करती,
कभी छोटी हो जाती तो कभी लंबी
कभी मोटी हो जाती तो कभी पतली,
मैं दौड़ता हूँ तो तू भी साथ-साथ दौड़ती।

जब मैं दुख में आँसू बहाता हूँ
तू आकर पास क्यों खड़ी हो जाती है?
जब मेरे अपने सारे छूट जाते हैं
तो तूही अकेलापन दूर करती है।

फिर भी अपनी ही परछाई देखकर
हम क्यों डर से सहम जाते हैं?
घबराकर कभी-कभी चीखते भी हैं
हम अपनी सच्ची साथी को नहीं पहचानते हैं।

वह हमेशा हमसे कहती है मानव
तू मुझसे क्यों डरा- डरा रहता है?
ज़रा सोच तू काया है और मैं तेरी साया,
बाकि सब ब्यर्थ है क्योंकि वे माया हैं ।

फिर न जाने ऐसे दोस्त क्यों छूट जाते हैं
श्मशान या कब्र में जाते ही,
वह बिना कुछ कहे विलिन हो जाते हैं
हम स्वार्थी लोग इन्हें नहीं पहचानते हैं।