इंतिज़ार ♥️
मसर्रत हुई सोच कर ख़्वाहिश एक।
इंतिज़ार ने किया फिर साज़िश एक।
तुम आस में थे की तलब हूं मैं,
मैं आस में था की नज़्म हो तुम।
वो नज़्म जिसे लिखने का 'अज़्म करूं मैं,
उस मुद्दत में स्याही हो साथ और मुक़ाबिल हो तुम।
थम जाए लम्हा जब रस्म-ओ-राह हो नजर का,
तमन्ना हो ऐसी की वक्त ठहरे और करे आरजू।
...
इंतिज़ार ने किया फिर साज़िश एक।
तुम आस में थे की तलब हूं मैं,
मैं आस में था की नज़्म हो तुम।
वो नज़्म जिसे लिखने का 'अज़्म करूं मैं,
उस मुद्दत में स्याही हो साथ और मुक़ाबिल हो तुम।
थम जाए लम्हा जब रस्म-ओ-राह हो नजर का,
तमन्ना हो ऐसी की वक्त ठहरे और करे आरजू।
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