...

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अंतरद्वंद
एक तरफ थे अपने परिजन
एक तरफ रण था ।
अंतर्द्वंद में घिरा हुआ
पार्थ का अंतर्मन था !

नीर चक्षुओं में सजल हुए
जड़वत हो गए शस्त्र सारे।
पैरों में बेड़ियां थीं अपनों की
बेबस थे...धनुर्धर बेचारे !

अंतर्द्वंद से जूझता मन
आखिर कैसे करें स्व पर प्रहार !
देख व्याकुल पार्थ का मन
गिरधर ने धरा स्वरूप विशाल !

दुविधा के कानन में उलझे ,तब
हुआ अर्जुन को सत्य का भान !
महाभारत के रण में मिला ,जब
दिव्य - स्वरूप से गीता का ज्ञान !

मेघ द्वन्द के..छंट गए सारे
किया अर्जुन ने, फिर प्रहार !
धरम के विजय की खातिर
अंततः हुआ अधर्म का संहार !!
मीना गोपाल त्रिपाठी
मीना गोपाल त्रिपाठी
स्वरचित