फितरत
रेंगता था कभी जिस धरती पे आज उस पे हक अपना जताता है वाह रे इंसान फितरत तेरी जिस धरती ने है तेरा भार उठाया उसका मालिक अब खुद को तू बतलाता है,
अन्ऩ देती है जो भरपूर तुझे उसमें भी भ्रष्टाचार तू चलाता है फल फूल खाकर उसी के उसके पेड़ों को तू जलाता है,
प्यार है जिसमें असीमित भरा...
अन्ऩ देती है जो भरपूर तुझे उसमें भी भ्रष्टाचार तू चलाता है फल फूल खाकर उसी के उसके पेड़ों को तू जलाता है,
प्यार है जिसमें असीमित भरा...