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माँ कुमारी
चली परिक्षण करने, देखो, महर्षि दुर्वासा वरदान |
दिया था जिसे मुनि ने रख , बाला भविष्य का ध्यान||

ज्योहीं स्तुति कर लिया सूर्य का नाम|
तत्क्षण गोद भर आया नन्हा, रश्मिरथी समान||

सफल परिक्षण देख, चकित हुई मखमल-सी इकबाली|
कहाँ छुपाऊँ जीवन के इस अमुक अभिव्यक्ति की प्याली||
लौटालो वरदानी नंदन, हे महर्षि! हे अंशुमाली||

बाधित हूँ और विवश भी, कहे प्रभु प्रभाकर|
पर देता हूँ अभेद्य कवच और कुंडल इसे अजेय बनाकर||
जीवन में तम-तिमिर छाया था, सूर्य पुत्र भी पाकर ||

मन तो तृप्त हुआ, सुन रवि से ये वर |
पर उस दिन परित्याग था उसने, अपना ही एक कलेवर||

पूछो नहीं उनसे, कैसे ममता का ज्वार चुराया था|
कैसे विक्षुब्ध कौमारी ने अपना कौमार्य बचाया था ||

हे जान्हवी! हे भागीरथी! हे मंदाकिनी!
ले तुझे सोपति हूँ अपनी अनमोल मणी|
कहते- कहते क्षीर- नीर से भीग उठी कुंती की पिपनी||

परिणाम सदा यही होते हैं, जब एक बाला माँ बन जाती|
नये आयामों में भी, व्यथा गरल - सा पीता, कौंत्य- कर्ण की भाॅऺति||


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