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स्त्री भेदभाव भावश्रृखला एक असम्भव प्रेम गाथा ।।
श्रृष्टि जन्मी मैने,
कोई मेरा सार नहीं ,
दिया सर्वत्र है ,
यह भी व्याप्त नहीं,
तू नाम दिया मुझे यह तेरी मेहर थी,
मगर मैने एक प्रेम कलाम मुकम्मल अल्फाजों में सिमट दिए और मैने तूजे बेह इतिहा मोहब्बत थी,
और अगर तूने मुझे ना पूरी हो दिया तो इसमें ना तेरी रजा थी।
ना मेरी खता थी जिसने तूजसे ज्यादा चहा मुझे,
बस इतनी सी उसकी यह सज्जा थी,
जन्म दिया तो सन्तान अभाग्य,
प्रेम किया तो वियोग सहना हुआ,
विवाह हुआ तो विलय की अग्नि में जल पड़ा।।
और क्या ये सब कुछ काफी नाही था,
तो मुझे सम्मान तो नहीं मिल सका।।
लेकिन मुझे विष का पान करने की अनुमति नहीं दी गई।।
क्यों क्योंकि इसलिए कि मैं स्त्री हूं,
मैं ही सार हूं,
और मैं ही विनाश हूं।।
क्योंकि हां मैं राधा प्रेम हूं,
सीता सतयावती,
मैं ही सावित्री हूं,
मैं ही नर मुंड की पात्र हूं,
मैं ही रकतपान करने वाली हूं,
मैं स्वाभिमान हूं,
मैं ही विजय हूं
मैं ही पराजय हूं,
मैं ही कालचक्र धारी हूं,
मैं ही ही महाअघोरी हूं,
मैं ही माया हूं।।
मै न्याय करता यशोदा नन्द वासुदेवाय पुत्र श्री कृष्ण हूं।।
मै परमबृम हूं।।
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