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मैं तन्हा हूं।
मैं तन्हा हूं।
जैसे ही मैं यह कहता हूं, मुझे नजर आने लगते हैं सड़क पर कचरा उठाते बच्चे जिनके कंधे पर किताबों से लगा बस्ता होना चाहिए था, लेकिन उनके हाथों में गंदी बोतले और शीशे के टूटे हुए कांच नजर आते हैं।
मैं तन्हा हूं, जैसे ही मैं यह सोचता हूं, मुझे अस्पतालों में बीमारियों से जूझते लोग और उनके साथ आधी नींदों के अधजगे लोग दिखते हैं।
जैसे ही मैं कहता हूं कि मैं तन्हा हूं, इस वक्त मुझे तमाम परेशानियां इस दुनिया की नजर आने लगती है जो मेरे तन्हा होने से कहीं ज्यादा जरूरी है।
जैसे किसी हादसे में अपने दोनों हाथ गवां बैठी एक औरत जिसे अब अपने बच्चों के साथ-साथ अपने गुजारे के लिए भी काम करना था। जैसे किसी वहशी आदमी की हवस का शिकार हुई एक लड़की जिसके लिए जीना भी बहुत है।
मैं जब-जब खुद को तन्हा कहता हूं, मैं पाता हूं कि दुनिया में सारी दिक्कतें मेरे सामने ही पनप रही है। और मैं खुद को एक मूक दर्शन की तरह पा रहा हूं।
लेकिन मैं कैसे इंकार करूं इस बात से कि मैं तन्हा हूं।
मेरी लिखी यह कविता मेरी इस तन्हाई की एक उदासी है।

तान्या