उग जाती है कविता
कल्पना लोक की उड़ान में जी लेती है थोडी सी जिंदगी
बादलों के कोमल पंख लगा कर मुट्ठी में भर लेती है आसमां
काली स्याह रात सी लहराती जुल्फो की लंबी गुथ बना
टांक लेती है गुथ में सितारों को चांदनी के चमीकीले तारों से
धवल चांद का आइना बना कर लेती है हर सोलह श्रृंगार
माथे पर औत्सुक्य के कारण उभर आई ओस की बूंदों से
परावर्तित होती है रजनीपति की चंचल झिलमिल किरणें
छा जाता है एक अलौकिक प्रकाशमय सा परिवेश
उस में जी लेती है चकोरी अपनी खुशियों का संसार
आखिर कब तक रोक सकती थी चांद का वो सफर
समेट लेती है अपने प्यारी कल्पनाओं का सारा संसार
सहेज लेती उन्हें अपने मस्तिस्क के कोने में महफूज
ताकि ना हो धूमिल वो सूरज की लालिमा के साथ
दिन उगे उतार देती है शब्दों में , स्वप्न में देखे वो विचार
और हकीकत के धरातल पर उग जाती है सुंदर सी कविताएं
© ऋत्विजा
बादलों के कोमल पंख लगा कर मुट्ठी में भर लेती है आसमां
काली स्याह रात सी लहराती जुल्फो की लंबी गुथ बना
टांक लेती है गुथ में सितारों को चांदनी के चमीकीले तारों से
धवल चांद का आइना बना कर लेती है हर सोलह श्रृंगार
माथे पर औत्सुक्य के कारण उभर आई ओस की बूंदों से
परावर्तित होती है रजनीपति की चंचल झिलमिल किरणें
छा जाता है एक अलौकिक प्रकाशमय सा परिवेश
उस में जी लेती है चकोरी अपनी खुशियों का संसार
आखिर कब तक रोक सकती थी चांद का वो सफर
समेट लेती है अपने प्यारी कल्पनाओं का सारा संसार
सहेज लेती उन्हें अपने मस्तिस्क के कोने में महफूज
ताकि ना हो धूमिल वो सूरज की लालिमा के साथ
दिन उगे उतार देती है शब्दों में , स्वप्न में देखे वो विचार
और हकीकत के धरातल पर उग जाती है सुंदर सी कविताएं
© ऋत्विजा