...

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गाँव मेरा खो चुका।
कल फ़िर गाँव को जो मैं गया
कोशिश में फ़िर मैं जुट गया,
ढूँढा बहुत मैंने मग़र
ना गाँव मुझको मिल सका।
कल फ़िर गाँव को जो मैं गया...

दुकान एक परचून की
अब मॉल शायद हो चुकी,
चिड़ियों की चहकारें सभी
अब मौन शायद हो चुकी,
बचपन था जिसमें खेलता
वो बाग गायब हो चुका।
कल फ़िर गाँव को जो मैं गया...

हाँ पेड़ भी शायद मुझे मालूम कम थोड़े हुए
ढूँढे मगर ना मिल सके पौधे मेरे छोड़े हुए,
शायद वो प्रगति की इन
लाशों के नीचे दब चुके,
या फ़िर किसी होटल के
दरवाजों में शायद लग चुके,
सीधा सा मेरा गाँव इस प्रगति के हाथों मर चुका
कल फ़िर गाँव को जो मैं गया...

शहरीकरण एक हद तलक
तो विकास होता है मगर,
ये हद परे शहरीकरण तो
विनाश पर अब अड़ चुका,
पेड़ों से सुंदरता नहीं
साईकिल से है शोभा नहीं,
है फोन में बस जिंदगी, ऐसा भी सुनने को मिला
ऐसी विषैली तंत्रविद्या गांव मेरा रट चुका
कल फ़िर गाँव को जो मैं गया...

© AK. Sharma