कसक
मन की कसक
द्वंद स्वाभाविक
हकदार मै भी
क्यों नहीं वो मेरा भी
हर बार मै ही क्यूँ
ना किये की सजा मुझे ही क्यूँ
मैने तो बेइंतिहा चाहा
पर उसे पूरा क्यो नही पाया
क्यूँ हर बार मेरे हिस्से
बार बार अधूरे किस्से
ये तो तय था
पूरा ना पाया था
अपेक्षा से ज़्यादा
मुझे क्यों नही मिल पाता
मुझे ये भी पता है
मेरा हक़ मुझे मिल रहा है
पर मन को मेरे कैसे समझाऊँ
कैसे मै पुरा पाऊँ
कमी तो उसने कुछ रखी नहीं
जो मिल रहा वो भी कुछ कम नहीं
बस… कभी कभी बेचैनी बढ जाती है
उनकी हरकत बेगानी सी लगती है
मेरी कसक ही शायद ही इसका कारण हो
वो सही और मै शायद गलत हो
चलों मन को समझा लेते हैं
जितना भी मिले उसे स्वीकारते है
© ख़यालों में रमता जोगी
द्वंद स्वाभाविक
हकदार मै भी
क्यों नहीं वो मेरा भी
हर बार मै ही क्यूँ
ना किये की सजा मुझे ही क्यूँ
मैने तो बेइंतिहा चाहा
पर उसे पूरा क्यो नही पाया
क्यूँ हर बार मेरे हिस्से
बार बार अधूरे किस्से
ये तो तय था
पूरा ना पाया था
अपेक्षा से ज़्यादा
मुझे क्यों नही मिल पाता
मुझे ये भी पता है
मेरा हक़ मुझे मिल रहा है
पर मन को मेरे कैसे समझाऊँ
कैसे मै पुरा पाऊँ
कमी तो उसने कुछ रखी नहीं
जो मिल रहा वो भी कुछ कम नहीं
बस… कभी कभी बेचैनी बढ जाती है
उनकी हरकत बेगानी सी लगती है
मेरी कसक ही शायद ही इसका कारण हो
वो सही और मै शायद गलत हो
चलों मन को समझा लेते हैं
जितना भी मिले उसे स्वीकारते है
© ख़यालों में रमता जोगी