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यूं ही वाली ज़िंदगी...
एक ही धुरी से जुड़ी हुई ज़िंदगी
उसके आसपास चलती मुस्कुराती हुई ज़िंदगी
धुरी से ज़रा से जो देखो हटने लगे हैं
बिखरने की कगार पर पहुँची है ज़िंदगी
अपने ही लोग, अपना ही तो समाज है
जिनके लिए हर सांस लेती है ये ज़िंदगी
वक़्त का बदलना, लोगों का बदलना
सकून के एक पल को मोहताज होती ज़िंदगी।
क्यों न बांध लिया जाए ख़ुद को उस ख़ुदा से
जिसके अहसास से पूरी है हर अधूरी ज़िंदगी ।
अब हमसे ये उलझनें संभाली नहीं जाती
जाने कब खो जाए, खुलकर जी जाए ये ज़िंदगी
© संवेदना
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