...

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प्रतीक्षा
इन लाल ईट की सीढ़ियों पर पहरों बैठना
और दूर क्षितिज तक फैली गंगा के आंचल में
सूरज का वापस डूबना
फिर उस मखमली बैगनी आकाश में सफेद चांद
के निकलने तक
मंदिर के कपाट खुलने से मंदिर के कपाट
बंद होने तक
मैं यहीं बैठती इन्ही लाल सीढ़ियों पर
कभी ऐनक को आंखो से उतारते
अपने आंचल से आंखे पोछते
फिर खोलकर वो भूरी सी डायरी
में लिखती चंद बातें
कुछ होती कुलबुलाहट उमड़ने लगती यादें
और भीग जाती मेरी पलके
कुछ देर तक होती धीमी बरसातें
मैं देखती दूर छोर पर
कहीं तो पूरे होते होंगे वादे
बस तुम नहीं आते
साल दर साल यूंही बीतते जाते
तुम हृदय पर लिखे नाम हो
मैं महसूस करती हूं उस ध्वनि उस वर्ण को
जिनसे तुम्हारा नाम बना
अकेले में इन्ही सीढ़ियों पर कई बार
लिखा और मिटाया है
लेकिन जो हृदय पर लिखा
उसको कैसे मिटाऊं
कई बार यूं लगता है जैसे किसी ने
स्पर्श किया मेरे कांधे पर
जैसे कोई शीतल हवा छू सी गई मुझे
मैने पलट कर देखा
तुम नहीं मिले
ये दिन भी यूंही बीत चला
जैसे पिछले कई दिन कई मास
कई साल चले
© Shraddha S Sahu