...

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स्त्री
एक स्त्री रीति रिवाजों मैं जकड़ी
फर्ज निभाने मैं जकड़ी
सब को खुश करने मैं
अपनी खुशी खो दी
सोचा तो बहुत था बचपन मैं
पर उन चार दीवार के पीछे
पंख ही फड़फड़ाते रहे
कहाँ उड़ पाए..........
मुझे तो सिखा दिया रीति रिवाज निभाना
फर्ज निभाना सबके लिए जीना
ढाढस बंधा दिया मिलेगी एक और जिंदगी
मिलेगा हमसफ़र.......
एक कल्पना के सहारे यूँ दिन बीत गए
मन मैं थी एक कल्पना एक उड़ने की
पर ये भी तो उम्मीद टूट गई
जब.........
सिर्फ लोग बदले थे
माहौल नहीं रीति रिवाज नहीं
हमारे फर्ज नहीं
हमको तो जैसे खरीदा हो
सिर्फ लालच...