...

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स्त्री
एक स्त्री रीति रिवाजों मैं जकड़ी
फर्ज निभाने मैं जकड़ी
सब को खुश करने मैं
अपनी खुशी खो दी
सोचा तो बहुत था बचपन मैं
पर उन चार दीवार के पीछे
पंख ही फड़फड़ाते रहे
कहाँ उड़ पाए..........
मुझे तो सिखा दिया रीति रिवाज निभाना
फर्ज निभाना सबके लिए जीना
ढाढस बंधा दिया मिलेगी एक और जिंदगी
मिलेगा हमसफ़र.......
एक कल्पना के सहारे यूँ दिन बीत गए
मन मैं थी एक कल्पना एक उड़ने की
पर ये भी तो उम्मीद टूट गई
जब.........
सिर्फ लोग बदले थे
माहौल नहीं रीति रिवाज नहीं
हमारे फर्ज नहीं
हमको तो जैसे खरीदा हो
सिर्फ लालच बहुत उम्मीदे......
और हमसफ़र के लिए
तो जैसे कोई चीज थे.......
लगता था छोटे पिंजरे से बड़े पिंजरे मैं आ गए हों......
अब नहीं था कोई सहारा
मन विचलित हुआ दुबारा
तोड़ना था ये पिंजरा
इतना चाहिए था जिगरा
एक दिन आया.......
अब तोड़ दिए सब जाल
गया वो अब काल
जब हम होते थे बेहाल
अब हम है सबकी ढाल
अब मेरी पूरी होगी....
इच्छा....
तमन्ना...
सपने..
ख्वाहिश...
जुनून है मुझमे.....
किया..... मैंने किया
जो तूने किया उससे ज्यादा किया
देखा इस ज़माने ने......
मैंने तो बस वो बंदिश तोड़ी
वो रीति रिवाज तोड़े जो सिर्फ मेरे लिए थे
नहीं छोड़ा सम्मान
नहीं छोड़े कर्तव्य
मुझे पता है अपना रोल
इस परिवार को चलाने का...
इस समाज को चलाने का....
दुनिया के स्थायित्व के लिए हम जरूरी है
पर जिएंगे आत्मसम्मान से
हमारा होगा वजूद
नहीं होगी बंदिश
सिर्फ मेरे लिए.....
मैं हूँ स्त्री आज की
.......








© Abhishek mishra