...

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ग़ज़ल
इश्क़ के इन थके बाज़ुओं के सिवा
और कुछ भी नहीं आँसुओं के सिवा

ये अंधेरे युहीं जगमगाए नहीं
और भी कोई है जुगनुओं के सिवा

क्या मज़ा है भटकने में यूँ दर - ब - दर
कोई समझा न ये साधुओं के सिवा

था कोई और भी क़ाफ़िले में मेरे
डर था जिसका मुझे डाकुओं के सिवा

मत मुझे आज़माओ ख़ुदा के लिए
दे सकूँगा न कुछ आँसुओं के सिवा

ज़ख़्म गहरा है “आलम” मिरा किस क़दर
जानता कौन है चाकुओं के सिवा

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