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व्यथा उर्मिला की
उर्मिला-व्यथा

मानस मन्दिर में सती पति की प्रतिमा थाप
जलती थी उस विरह में बनी आरती आप।
आँखों में प्रिय मूर्ति थी भूले थे सब भोग
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम वियोग।

देख कर उर्मिल का मुख माँ का ह्रदय व्यथित हुआ
दैव ने नव-वधु को क्यूँ ये दारुण दुःख दिया?
भर आये अश्रु नयनों में जननी लखन की हुई विकल
मन में उठे ये भाव थे होनी ही होती है प्रबल।

लाये थे भ्रात चारों जब ब्याह कर वधू साकेत में
आनंद छा गया था तब दशरथ के इस निकेत में।
वो दिवस और आज का दोनों में कितना भेद है
कैकेयी जीजी को भी अपनी करनी पर अब खेद है।

ये सोचती सुमित्रा ने उर्मिल से बस इतना कहा
'आ निकट पुत्री मेरी न मन ही मन अश्रु बहा'
उर्मिल ने देखा...