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व्यथा उर्मिला की
उर्मिला-व्यथा

मानस मन्दिर में सती पति की प्रतिमा थाप
जलती थी उस विरह में बनी आरती आप।
आँखों में प्रिय मूर्ति थी भूले थे सब भोग
हुआ योग से भी अधिक उसका विषम वियोग।

देख कर उर्मिल का मुख माँ का ह्रदय व्यथित हुआ
दैव ने नव-वधु को क्यूँ ये दारुण दुःख दिया?
भर आये अश्रु नयनों में जननी लखन की हुई विकल
मन में उठे ये भाव थे होनी ही होती है प्रबल।

लाये थे भ्रात चारों जब ब्याह कर वधू साकेत में
आनंद छा गया था तब दशरथ के इस निकेत में।
वो दिवस और आज का दोनों में कितना भेद है
कैकेयी जीजी को भी अपनी करनी पर अब खेद है।

ये सोचती सुमित्रा ने उर्मिल से बस इतना कहा
'आ निकट पुत्री मेरी न मन ही मन अश्रु बहा'
उर्मिल ने देखा मात को आई वहाँ उनके निकट
माता की पीड़ा देखकर उर गया उर्मिल का फट।

बोली दबाकर पीड़ा निज 'माँ ! आज आप मौन हैं'
बस देखती एकटक मुझे और सब कुछ गौण है।
माता ने देखा नेह से उर्मिल निकट ही थी खड़ी
नन्ही सी उनकी उर्मिला करने लगी बातें बड़ी।

उर के समीप लाई तब ममता छलकने थी लगी
मुरझाये न दुःख -ताप से मेरी यह सुकोमल सी कली।
चौदह बरस विरह-ताप को कैसे सहेगी उर्मिला?
जब मैं स्वयं अधीर हूँ कैसे दूं इसको सांत्वना?

देख माता को विकल उर्मिल ने बस इतना कहा
'हे मात रखिए धैर्य टल जायेगा संकट महा'
मैं हूँ जनक की नंदनी सीता की छोटी हूँ बहन
हमको सिखाया मात ने कैसे निभाते पत्नी-धर्म?

विचलित नहीं व्यथित नहीं मुझको अटल विश्वास है
आयेंगें लौट सब कुशल चौदह बरस की बात है।
आप चिंतित न हो माँ है ये परीक्षा की घड़ी।
धर्म -पथ पर बढ़े प्रिय,उर्मिल भी उस पर बढ़ चली।

अब शोक मात त्यागिये,उर्मिल निवेदन कर रही
हैं आप ही सम्बल मेरा हे मात आप महिमामयी।
उर्मिल-वचन-फुहार से माँ का ह्रदय शीतल भया
मनोकामना बस हो कुशल से लखन संग रघुबर-सिया।
(साकेत)