...

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ढलती शाम और तुम
हर ढलती शाम मुझे, मेरी तन्हाइयों से मिलाती है !

हर ढलती शाम मुझे , तेरी याद दिलाती है !

रोज अकेले बैठकर मैं , यूं ही मुस्कुराया करता हूं !

रोज तुझे मैं अपने इन , ख्यालों में बुलाया करता हूं !

काली घटा जब छाती है !

बारिश की पहली बौछार जब आती है !

ऐसा लगता है मानो ,

तेरी यादों की सौगात ले आती है !

ठंडी - ठंडी मानसून हवाएं , जब मुझे छू कर जाती है !

मेरे इश्क को और भी , रूहानी कर जाती है !

मौसम जब - जब बदलता है ,

तेरे - मेरे इश्क की गहराई ,और भी बढ़ जाती है !

पूरब का सूरज जब सफर कर, पश्चिम की ओर ढलता है !

ऐसा लगता है मानो जैसे ,

मेरी सारी दिशाएं तेरी ओर ठहर जाती है !

मेरे इश्क की हर राह , बस तेरी और ही मुड़ जाती है !

और कोई डोर मुझे तेरी ओर , खींच ले आती है !

तकदीरों का पता नहीं , लकीरों का पता नहीं ,

पर यह प्रकृति हमारे इश्क को , और भी बढ़ाती है !

ऐसा लगता है मानो जैसे ,

यह हमारे प्यार की साक्षी बन जाती है !

© Rachna pagare