...

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गुलाबों का सफ़र
गया तो था एक बिगिचे में
जहां के फिज़ाओं में तेरे ख्वाब की मेहक थी
में भ्रमर था महज़ एक, आंखो में लहज़ थी..

चला कुछ देर और में, समिट के ख्वाबों कों तेरे
पता चला झोली भर के दिल् में कुछ दहक सी
धुआँ-धुआँ सी किनारे पे अटका,
आगे मेरे आग बुझाने इश्क़-ए-समंदर थी..

में डुबा इस कदर, बे-सहारा और बेअसर
जेसे गुलाब की पांखुरीओं का हाल करे वो लहर
रेतों की किनारों ने कहा, अब ठहर जा रे बसर..

लड़खड़ाने लगे थे पैर, खिचे मेरे अंदर से तेरे और
उम्मीद दब-दबे से रूह में, धड़कने दिल् में हुई जोर
फ़िर से गुज़रा में उस बागीचे में, फिज़ाओं से होके
लेके गुलाबों का एक गुल्दस्ता, ख्वाबों के बंधे थे डोर

समंदर के लहरों सा उछाल लेके, किनारों सबर भर के
दिल् के अंगारो से तेरे लिए...हिरे ढूंढ के..
अब तू मेरे इश्क़ को कुछ भी समझ,
में लौटा हूँ तेरे ख्वाबों से, खुद के हक़ीक़त देख के
देख तेरे गालों में गुलाबी, गुलाबों ये की सफ़र पढ़ के..

© wingedwriter