...

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जिंदगी तू मुक़म्मल नही
ज़िंदगी तू मुक़म्मल नही , फिर भी पुरज़ोर कोशिश करती है ,
आज़माती ही रहती हर पल , एक कतरा नवाज़िश न रखती है।
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राह-ए-सदाक़त पर चलने का , अक्सर अंज़ाम यही होता है ,
मयस्सर होती तनहाइयाँ ही , तू तो झूठ पर मेहरबान होती है।
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मुक़म्मल नही तू फिर भी , मुझे बेहद नाज़ होता है तुझ पर ,
सीख देकर तमाम घटनाओं से , तू ही तो जीना सिखाती है।
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खाली हाथ आए खाली ही जाना ,फिर भी सब अहम से लबरेज़,
दूसरों को गिराने की जद्दोजहद में , तू बेजा ही बीती जाती है।
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सब्ज़महल के चक्कर में मानुष , ज़मीर बेचने से न हिचके ,
मुक़म्मल न होकर भी तू जिंदगी , खेल ही खिलाए जाती है।
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उलझाती झंझावतों में हर पल , होड़ ही लगी रहती तमाम ,
पर तुझे ही पाकर तो ये "नूरी" , बेबाक़ क़लम दौड़ाए जाती है।
--@NURI (नैरिती)...💞💞