...

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अपने .......
अपनों को बदलते देखा है मैंने.....
ज़रूरत के वक़्त ही पास आते देखा है मैंने...

हो ज़रूरत तो
हाल-समाचार पूछने आते हैं......

Calling पर बतियाते हैं........
कभी सेकेंड से मिनट
तो कभी मिनट से घंटों लगवाते हैं....
रह जाते हैं काम-काज अधूरे
और हम भाव-विहोर होकर
उन्हें अपना समझ जाते हैं.....
हो जाए जब उनका काम पूरा
फ़िर हम कौन , तुम कौन बनकर
रह जाते हैं..........
स्वार्थ भरा होता है बस उनमें
उन्हें घड़ी-घड़ी बदलते देखा है मैंने......

जब हमें हो कोई समस्या या बीमारी
तब उन्हें लगने लगते हैं भारी.....
और लोगों की सुनो
बड़े चाव से कहते हैं-
इतने सारे रिश्तेदार हैं
आपके अपने ही काफ़ी हैं........
अब उन्हें कैसे बतलाया जाए.....
अपनों की फरेबी कैसे सुनाया जाए.....
ये अपने होते नहीं कभी अपने
महज़ ये सपने हैं कि
हमारे अपने हैं...........!!!!!!!!





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