...

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फितरत
#जून
चार जून की बात है
उसमें भी कुछ घात है
कौन बनेगा समय का साहु
वक्त की यही तो चाल है
बिछा के बिसात धोखोंं की
आदमी बनता होशियार है
उसे नहीं पता कि
खुदा के हाथों ही होती
हर एक चाल है
उसके ही हाथों होता
सबका हिसाब किताब है
चालाकियों से कहां चलती है
ज़िंदगी यहां
पर लोगों को तो खलती है
दूसरों की ज़िंदगी यहां
कर्मों के अनुसार ही मिलता है
सब को, करनी का फ़ल
बिना निकाले निकलता नहीं
परेशानियों का हल
दोष ही दोष वो दूसरे में देखता है
खुद के गिरेवां में झांक के वो कहां
देखता है