...

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घर से जुडी अनूठी यादें
मेरा घर प्रतीत होता है जैसे भू पे स्वर्ग,
जीवन के पहलू जहाँ सीखे मैंने यही मेरा प्रथम वर्ग |

चलना, गिरना,बोलना यही पर पढा मैंने |
शरारतों का उदगम भी यही पाया मैंने |

बड़े लोग आकर दिवारें रंगीत तो करते थे |
पर उनपर लिखने-सजाने वाले असल कारीगर हम थे|

रोज़ उन खंबों पे लटकर करतब दिखाना पेशा था हमारा |
बडी़ सफाई से फर्श की स्वच्छता मिटाना काम था करारा |

हर खेल-कूद में घर की वस्तुएँ तोडते |
खिलाड़ी बन चार-दीवारी घर को ही मैदान समझते|

खुशी में घरभर किलकारियाँ लगाते |
पर दुख में आँसु बहाने हेतु कोने खोजते|

फिर जैसे-जैसे उम्र बढती गई|
इन यादों की गाड़ी पटरी से सरकती गई|

जिम्मेदारियों ने ले ली चंचलता की जगह|
बनी फिर नई स्मृतियों की वजह|

भलेही आज घर से अधिक, बाहर होता है जीना|
घर जैसा सुकून पर,न देता कोई अन्य जग का कोना|

~G. Neha #drmr