...

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नासमझ ख़्वाब
अक़्सर करवटें बदलतें हुए , गुजरती हैं रातें,
ये नासमझ ख्वाब आँखों में ,फ़िर भी चले आते,

ज़िन्दगी की तलाश में ,शायद अभी तक जिंदा हैं,
एक सहर की ख़्वाहिश में, हर रात ही ताबिन्दा है,

ज़िन्दगी के उलझे धागे , एक दिन तो सुलझेंगें,
उस दिन हम भी इन ख़्वाबों की ताबीर लिखेंगें,

दफ़न थे ये ख्वाब अब तक , वक़्त की गहराई में,
उभर गए हैं ज़ख़्म इनके, ज़ीस्त-ए-तन्हाई में,

इन नासमझ ख़्वाबों को , फ़ुर्सत में समझाएंगे,
इस ज़िन्दगी का कारवाँ ,तब मंजिल तक पहुंचाएंगे।।

-पूनम आत्रेय