...

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दोस्ती -2
न जाने क्या पुराने मित्रों को होता गया
उनके मन से दोस्ती का ख्याल उड़ता गया
पहले मिलते थे तो ऐसे खुश होते थे जैसे
सर्वस्व मिल जाने पर इस धरा का, नहीं खुश होते वैसे
न जाने वो दौर दोस्ती का कैसे धीरे-धीरे चला गया
जो भी था सुख दोस्ती का,वो सिहर-सिहर के मर गया
जैसे ही महिला मित्र आयी सबके जीवन में
अपनी ही परछाई को ही नहीं देख पाए वो भूल से
उनके पीछे तो सर्वस्व न्योछावर कर दिया उन्होंने
कभी नहीं तवज्जो उन्हें दी, सबकुछ माना उन्हीं को जिन्होंने
चंद दिनों की आई लड़की को तुमने अपना सबकुछ माना है
जो न जाने कितनों को मिलेगी इसका कोई न ठिकाना है
और असत्य बातें भी उसकी,मेरे विरूद्ध तुमने सही मान ली
तुमको भी उसके साथ मिलूंगा,समझाने को अपनी अहमियत मैंने ठाना है
काश वो कक्षा सातवीं का दौर रह जाता वहीं
सुख की अनुभूति स्वर्ग से उपर होती थी यहीं
वो दौर भी न जाने क्यों यूँ ही बदल गया
सुख रूपी सिंधु का सागर ना जाने क्यों सूख गया
अब तो बसंत भी जीवन में बुलाने पर भी नहीं आता है
जो भी कहो सबकुछ भूलाने से, कुछ नहीं पाता है

© प्रांजल यादव