...

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दायरा
दायरा

दुबका सिमटा सा हुआ हूं
अपनी रजाई के भीतर,
मेरी रजाई का दायरा
मुझ से भी बड़ा है।

सिहर उठता हूं
सिर्फ सोच कर कहीं
मेरी रजाई मुझसे
छोटी ना पड़ जाए।

फिर सोचता हूं कि
क्या सबकी
रजाई का दायरा
ओड़ने वाले से बड़ा होता है?

फिर याद आते हैं
फुटपाथों पर
बिना रजाई और कम्बल के
सोते हुए मजदूर और किसान।

इनकी जिंदगी का दायरा
शायद मेरी रजाई और मुझसे
हमेशा बड़ा ही रहेगा क्योंकि
इनके ऊपर है खुला आसमान।

मेरा दायरा ठंड के साथ
सिमटता जा रहा है
पर मजदूरों और किसानों का
बढ़ती ठंड में होता जा रहा है अनंत।
© Dr Pawan Kumar Pokhariyal