...

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दिसंबर की आखिरी रात
ठंड में दुबकी हुई रात थी वह
कातिल ठंड बयारों के साथ थी वह
बेचैनी से भरी हुई
कोहरे में सनी हुई
चॉंद की बिंदी से सजी हुई

बेकरारी में भरी थी वह
ओस की बूंदों से रोती हुई
सूनी सडंकों पर आहें भरती हुई
रह रहकर दर्द सह रही थी वह

लोग जुटे हुए थे स्वागत में
आने वाले नये वर्ष का
बधाइयों का कतार लगा था
कुछ करने का उनमें फौलाद जगा था

पर एक ही दिन की बात थी वह
उसके बाद रातें वैसी ही होनीं थीं
जैसे होती आई हैं पिछले सालों से
पर तजुर्बें मिलते जाते हैं
बीते पिछले सालों से।

पर बेचैनी दिसंबर की आखिरी रात की
कुछ अलग ही बेचैन कर देती है
प्रेमियों में विरह भर देती है
शुद्ध ठंड की सुगंध बिखेर देती है
साल भर का लेखा एकत्र कर देती है
नये साल का मार्ग दुरूस्त कर देती है
लोगों के मन में योजनाएं बना देती है
इस प्रकार जाते जाते हर साल ये सब वो देती है