...

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स्त्री को क्या हक़ नहीं??
ना उसे खुद के लिए समय मिलता है,
लेकिन उसी की वज़ह से ये जग मुस्कराता है,
पर उसे ही मुस्कुराने का वक्त नहीं मिलता है,
स्त्री को क्या हक़ नहीं??

ना वो अपनी जिंदगी का कोई फैसला ले सकती है,
हर ग़म को वो दिल में छुपाये रखती है,
बस फर्क इतना है कि सभी उसकी जिंदगी का फैसला ले सकते हैं,
पर वो नहीं,
स्त्री को क्या हक़ नहीं??

सबकी ख़ुशियों का ख़्याल वो रखती है,
जिम्मेदारीयों,और सबके तानों के तले वो धंसती है,
फिर भी वो झूठी हंसी दिखाती है,
खुशियां ढूंढने का उसे वक्त है कहीं??,
स्त्री को क्या हक़ नहीं??..

जो सबको संभाल लेती है,
और हर परिस्थिति में खुद को ढाल लेती है,
या तो कोई जिंदगी में देखती नहीं है,
या फिर उनका गला घोंट देती है,
बस सबके सपने पूरे करने निकल पड़ती है,
स्त्री को क्या हक़ नहीं??..

जो दुनिया को हर बात सिखा दे,
क्या उसे पढाने,या पढ़ने का हक़ नहीं?,
जो दुसरों के आंसू पोंछ सकती है,
तो क्या वो खुद की ढाल नहीं बन सकती,
स्त्री को क्या हक़ नहीं??..

- written by VANSHIKA CHAUBEY
#strishakti
#writcopoemchallenge
ये कविता मैंने इसलिए लिखी क्योंकि
भले इस देश में स्त्री हर क्षेत्र आगे हों, लेकिन कहीं ना कहीं इस देश के किसी कोने में ऐसी भी स्त्रियां हैं जिन्हें कभी कभी आज़ादी नहीं मिल पाती।