...

80 views

बोझ़
ओझ़ल ओझ़ल सी आँख़े
धुंधला, धुंधला सा आसमाँ
सामने खड़ा प्यारा प्यारा
थ़ा एक बच़्चा सेह़मा सा ।

पीठ पें थ़ा बोझ़ सम्हाले
माता पिता और गुरुजनोंका
उम्र कच्ची, पक्के इरादें
बुलंद थे हौसलें उसके ।

झ़ुके कमरपर बोझ़ लिए
ज़ी रहा थ़ा, रोज़ एक मौत
बोझ़ कभी उतरा ही नहीं
उठ़ाता रहा, माँ-बाप के साथ
बिबी बच्चों का
सम़ाज और रिवांजोंका
सरकार और रिश्तेंदारोंका ।

ज़िंदगी ने बोझ़ उतरने
नहीं दिया, किसीनें हालात
बद़लनें नहीं दिया
सबको अपने-अपने
ख्वाब पुरे जो करनें थे ।

थकान सें लहू-लहान
पसीना -पसीना सा
मुड़कर देख़ा तो समझ़ा
पुरी जिंदगी ख़त्म होने
को है, बचा कुछ नहीं ।

जब मौंत नें पुछ़ा
' कैसी रही जिंदगी ',
तो बोला, " मिलती है
अगर थोड़ी ज़िंदगी,
तो और भी बोझ़ ऊठाऊंगा
अपना खु़दीका और
सपनोंका, ज़ो कें
मौका ना वक्त
मिला मुझे कभीं इस कदर
इस दुनियादारीं सें " ।।

© Subodh Digambar Joshi