...

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परवाज़
सारे रस्मों वादों को अब बेदार कर आया।
हां! मैं ख़ुद पर ही ख़ुद से वार कर आया।
पूछने से कहां मिली कोई खबर यार की?
क्या होना था हमसे? तेरे दर को भी पार कर आया।
ना जानते है हम उल्फत में जीना जब अब।
ख़ामोशी को ही ख़ुद का रूहदार कर आया।
अब आएं हो मुझे ढूंढने को ज़माने में तुम?
जाने - जां मैं अब सारे हदों को पार कर आया।
क्यों खून की बात हो अब ज़िन्दगी में तझसे?
अब तो मैं जाम - ए - लहू का इंतज़ार कर आया।
कहकशां बाकी ही है कहां मुझमें ज़िन्दगी?
ख़ुद को ही ख़ुद का तलबगार कर आया।
भूल जाएं सामने से भी हम तो अब चेहरों को।
इतना मायूसी में ख़ुद को गिरफ्तार कर आया।
अब क़फस भी तो नहीं कैद नहीं कर पाता है मुझको।
अपनी परवाज़ से जहां को कब का पार कर आया।।
ज़िंदादिल! ख़ुद से ही क्यों शिकायतें रहें तुझको?
तू तो तंगदिली में भी बेवफाओं से प्यार कर आया।।
© ज़िंदादिल संदीप