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मुट्ठी भर ख़्वाहिश
मुट्ठी भर ख़्वाहिश के लिए कितना भागता है आदमी
चंद सपनों के लिए कितनी बार टूटता है आदमी
सुकूँ के पल खोकर बैचेनी पालता है आदमी
निंद को गवा कर रातभर जागता है आदमी
औरों की खातिर ख़ुद को भुलाता है आदमी
फ़िर ख़ुद की तलाश में कितना भटकता है आदमी
साये में 'प्रीत' के ही तो पनपता है आदमी
फ़िर भी नफ़रत के बिज बोता है आदमी
चंद सपनों के लिए कितनी बार टूटता है आदमी
सुकूँ के पल खोकर बैचेनी पालता है आदमी
निंद को गवा कर रातभर जागता है आदमी
औरों की खातिर ख़ुद को भुलाता है आदमी
फ़िर ख़ुद की तलाश में कितना भटकता है आदमी
साये में 'प्रीत' के ही तो पनपता है आदमी
फ़िर भी नफ़रत के बिज बोता है आदमी
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