...

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Poem
मै नदी हूँ बहती जाती हूँ निरंतर धारा के प्रवाह मे
सब युगों को देखते हुए बदलते हुए मानव को अपनी संस्कृति का रुख बदलते हुए मानव को !.मैं
Ndi हूँ बहती हूँ बहती जाती हूँ
Na जाने कितनों की प्यास बुझाती हूँ
Kitno की आजीविका चलाती हूँ
Kitno की मलीनता साफ़ करके
Fir भी स्वच्छ कहलाती हूँ
Sabko शीतलता देकर खुद भी शीतल हो जाती हूँ
Mai नदी हूँ निरंतर बहती जाती हूँ
Kitne मेरी गोद मे आकर सो जाते हैं मृत्यु को प्राप्त होने पर भी शांति मेरे आगोश मे पाते हैं
Ha कई बार मैं भी विकराल बन जाती हूँ ना चाहते हुए भी तबाही मैं मचाती हूँ छोड़ के माँ वाली ममता मैं भी भक्षक बन जाती हूँ हाँ
Mai नदी हूँ निरंतर बहती जाती हूँ