ऐ हुक्मरानों
प्रतिद्वंद्वीयों को भी जरा हुंकार भरने दो ।
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
रक्त से खाली धमनियां शांत होने तक ,
तू कर प्रतीक्षा खून की रंगत बदलने दो ।
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
निज स्वार्थ में बुजदिल पड़ी आवाज है उनकी ।
कुछ फड़फड़ाते पंखों में अब राज है उनकी ।
अब जिन्दा रख पौरुष को तू अंगार होना है ।
माँ भारती के देह का सृंगार होना है ।
बाकी पड़ी कुछ बेड़ियों को तुम पिघलने दो ।
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
✍धीरेन्द्र पांचाल
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
रक्त से खाली धमनियां शांत होने तक ,
तू कर प्रतीक्षा खून की रंगत बदलने दो ।
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
निज स्वार्थ में बुजदिल पड़ी आवाज है उनकी ।
कुछ फड़फड़ाते पंखों में अब राज है उनकी ।
अब जिन्दा रख पौरुष को तू अंगार होना है ।
माँ भारती के देह का सृंगार होना है ।
बाकी पड़ी कुछ बेड़ियों को तुम पिघलने दो ।
ऐ हुक्मरानों और थोड़ा शाम ढलने दो ।
✍धीरेन्द्र पांचाल