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कुछ सपने.
कुछ सपने देखने लगा है मन,
मगर नहीं मिलता उनको आकार
कभी कभी ये पागल मन,
सोचता है यूँ ही निराधार
कोई अजनबी सा था जो
मगर अजनबी नहीं,
वो मेरा आसमान सा
मै बन गयी ज़मीं सी,
फिर क्यूँ अधूरा सा है
अपना ये मिलन,
ऐसा नहीं चाह है बदन की
मगर रूह प्यासी है मिलन की
क्या कोई समझ पायेगा
इस प्रेम को सिर्फ मन.
© Rashmi Garg
मगर नहीं मिलता उनको आकार
कभी कभी ये पागल मन,
सोचता है यूँ ही निराधार
कोई अजनबी सा था जो
मगर अजनबी नहीं,
वो मेरा आसमान सा
मै बन गयी ज़मीं सी,
फिर क्यूँ अधूरा सा है
अपना ये मिलन,
ऐसा नहीं चाह है बदन की
मगर रूह प्यासी है मिलन की
क्या कोई समझ पायेगा
इस प्रेम को सिर्फ मन.
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