...

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क़िताब की ख़ामोशी
जब भी ख़ुद को हमने तन्हा पाया था
टूटा जब अपना दिल था
यारों ने भी जब ना समझा था
ख़ुद को बोलने में असमर्थ माना था
खामोशियों में फ़िर अपना सुकूँ पाया था
बारिश की वो भींगी सी खुशबू
किताब की पन्नों की वो मेहक
अजीब सी दास्तां है संग की
जज़्बातों की अपनी कारवां
मुग्ध बह चला शब्दों के सागर में
किताब के खामोशी में
अक्षर दर अक्षर के परत में
बस सुकून का डेरा है
खो कर पा सकुं ख़ुद को
वही तो ये पता है.

© LivingSpirit