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कान्हा गर राधा के हो जाते

प्रेम त्याग का पाठ तो हमने,
खूब पढ़ा है राधा का,
निःस्वार्थ भाव का प्रेम तो समझो,
जीना आधा और मरना आधा सा।
स्त्री होकर भी मर्यादा लांघी,
प्रेम में सर्वस्व दे दिया राधा ने,
क्या पाया सब खो ये वो ही जाने,
गजब का प्रेम किया था राधा ने।
पर बात आज करें क्या भाव थे,
मन में उस सर्वज्ञ मुरारी के,
क्या मनोदशा पढ़ भी चुप थे,
क्या विचार थे उस बाँके बिहारी के।
रुक्मिणी संग ब्याह रचा स्वयं,
वैवाहिक जीवन मे रम गए कान्हा,
तड़प, वियोग और प्रेम की चक्की,
पीस रही बेचारी राधा तन्हा।
गर्म दूध पी कृष्ण ने जलाए,
फफोले आये राधा के तन को,
रुक्मिणी को धोखा दिया कन्हैया,
राधा को देकर अपने मन को।
क्या राधा से प्रेम न था उस,
सृष्टि रचैया के मन में,
या राधा के प्रति संदेह था,
उस सर्वज्ञ नारायण के मन में।
क्या भय था राधा को लेकर,
उस सर्वशक्तिमान केशव को,
या रुक्मिणी को न कहने का,
साहस न था वासुदेव को।
बात थी बस प्रेम को जो,
अंत में शाश्वत राह गया,
उसके आस पास जो भी था,
समय के धार में बह गया।
राधा कृष्ण का अटूट प्रेम तो,
युगों में अकेला होता है,
प्रेम धुन में जो रम जाए,
वो जहां से ही अलबेला होता है।
मिसाल बनानी थी माधव को जो,
आज प्रेम की पहचान है,
राधा का त्याग तो समझो,
गोविंद की वजह से ही महान है।
गर समझो श्रीधर कुछ ऐसा करते,
रुक्मिणी छोड़ राधा को हरते,
क्या प्रेम के उस निःस्वार्थ भाव का,
आज हम सब मनन न करते।
एक पाठ पढ़ाया दामोदर ने,
खोन और पाने का सही अर्थ समझाया,
राधा के रूप में द्वारकाधीश ने तो,
दुनिया को त्याग को प्रेम बताया।
पाकर अपनाना और खो कर भी पाना,
उस हृषिकेश ने हमको सिखलाया,
स्थूल काया छोड़ सूक्ष्म प्राण से,
प्रेम करना हरि ने राधा से कहलवाया।
नमन है राधा, नमन है कृष्णा,
तुमने ये कर के दिखलाया,
कहानियां तो कई सुनी हैं सबने,
कहाँ ये प्रेम किसी की समझ में आया।


© ✍️शैल