...

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बेटियाँ
ज़न्म हुआ जब मेरा ,घर में मातम सा छाया था
तंज कस रही थी दादी , दादा ना गोद उठाया था

रो रही थी आँखे पिता की, माँ भी घबराई थी
पहली नहीं ,दूजी नहीं, अरे छटवीं लड़की आई थी

क्या था कसूर मेरा ,आप ही बताइए क्या करती मैं
उन नन्हें हाथों से ,कैसे गला घोंट मरती मैं

भूखी प्यासी भिलखती, नसीब का मिला खा लिया
लड़खड़ाते पैरो नें ,मानो मंजिल को पा लिया

कितना निर्दय होता है , यह ऊपर वाला
डाल देता है गले ,जैसे को कोई फूलों की माला

फूलों को फिर सहेज ले वर्षो तक ,पर सहेजी ना ये जाती है
मार - मार कर कलेजा बचाते है इनको, पर बच ना ये पाती है

दबा जाती है झोपडी कर्ज तले , महंगाई के इस दौर में
काश ! जन्मी ले ली होती , दो चार किसी घर ओर में

© Kiran Kumawat