...

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यमुना की सांझ ढल...
यमुना की सांझ ढल एक छाया, एक काया चल..धुन के प्रति सम्मोहन,
कैसे हरण हुआ
रात्रि के आरोह का आवरण ओढ़ बढ़ चली कुंज की ओर....
किंचित निहारती तनिक विवश समकक्ष
कान्हा,यह मंत्र है सर्वदा उचित तो नहीं
फिर वही लय, वही राग...कितने बंधन कितने आवेग...
नहीं राधे,
यह तंत्र है..
जो पार है वही वश में करने वाला सिद्ध प्रतीत होता है..अधिकार का सामर्थ्य है
उचित अनुचित नहीं मिलन
विदित रहे ज्ञात हो,
मेरे भीतर एक स्त्री है
जो तुम्हारे भीतर के पुरुषतत्व की लालसा रखती है...एक झुकाव से सब रहस्यपूर्ण अनंत प्रांगण में,चेतना में अनुभूति उसे सहर्ष स्पर्श करती रही...
लजिले नयनों की इतनी अमुक अमुक भाषाएं
कथाएं मढ़
कंदराओं में जैसे गढ़ गया विस्तार
मध्य में बहती जल में भीतर ही भीतर गहन घुमड़ती..अपलक झांकती
ज्यों उठ-उठ जिया की पीर
उपरांत,
राधिका मन से नहीं तन से उठी
पल भर हिलोर थी
झाँझर की झुनक थी वो
भोर तलक गूंजती रही मधुवन में..