...

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ये किसकी कमी है..
ये किसकी कमी है सताए जा रही,
रोज ही ये शाम मुझे खाये जा रही।
पहले सुनता था चहचहाना चिड़ियों का भी,
पहले गूंजता था नदियों से भी संगीत।
पहले लगते थे दरख़्त भी कुछ गुनगुनाते,
पहले पहाड़ भी लगते थे जैसे हो बुलाते।
वक्त ने न जाने ये कैसी करवट ली है,
दिन गुजर जाता है कागजों में यूं ही।
पर शाम जैसे ढलती है घड़ी सवाल करती है,
ये किसकी कमी है सताए जा रही,
रोज ही ये शाम तुझे खाये जा रही।
© Joginder Thakur