...

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वे स्त्रियां...
वे स्त्रियां कभी नहीं मिलीं
जो खो गयीं
घूंघट की आड़ में

जो मुंह-अंधेरे उठ
गोबर-दाना-सानी कर
खो गयीं दूध औटाने के लिए
सुलगते कंडों के धुँए में

जो उगते सूरज के संग
खेत की मेड़ों पर
बलखाती चल दीं
धान की रोपाई करने

गेहूँ की ओसाई करती
उन स्त्रियों के ग्रंथों के पन्ने
खो गए खलिहानों में
तो कभी खिल उठे सरसों में

किन्तु उन्हें जगह नहीं मिली...