...

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वे स्त्रियां...
वे स्त्रियां कभी नहीं मिलीं
जो खो गयीं
घूंघट की आड़ में

जो मुंह-अंधेरे उठ
गोबर-दाना-सानी कर
खो गयीं दूध औटाने के लिए
सुलगते कंडों के धुँए में

जो उगते सूरज के संग
खेत की मेड़ों पर
बलखाती चल दीं
धान की रोपाई करने

गेहूँ की ओसाई करती
उन स्त्रियों के ग्रंथों के पन्ने
खो गए खलिहानों में
तो कभी खिल उठे सरसों में

किन्तु उन्हें जगह नहीं मिली
स्त्री-विमर्श के मुद्दों में
उनके लिए न दीप जले
न मशालें....
वे हिस्सा नहीं बनीं
अन्याय के ख़िलाफ़ ज्वलंत
मुद्दों का...सिर्फ़ इसलिए
कि नहीं पढ़ीं उन्होंने किताबें
नहीं लिखे उन्होंने बड़े-बड़े लेख

वे ज़िंदा रहीं बस...
पनघट की पनिहारिनों में
होली की धमारों में
खंजड़ी और ढोल की तालों में

वे ज़िंदा रहीं बस
गाँव की अमराई में
पछुआ में पुरवाई में
बारिश में..बदली में
चैती में..कजली में
शिशिर की रातों में
हेमंत की बातों में

और शायद उन्हें ज़रूरत भी नहीं
तुम्हारी खोखली दुनिया में
किसी हिस्से की....।"
-©मधुमयी
© Madhumayi