कस्तूरी
चल रहा होकर बेफिकर
मोह का कैसा पाश अजब
ख्वाब सुनहरा टूटे प्रति दिन
ज्ञातव्य जिसे छोड़ना किसी पल
भूल भुलैय्या के इस नभ मे
करते फिर भी विचरण सारे
ठोकरो से हुए कुछ आहट
बने है कुछ इस जग मे निष्ठुर
हंसी खेल का धरे छद्म वेश
लोग छिपाते व्यथा ये मन की
चंचल चित्त का मोह यह भारी
गिरने पर भी...
मोह का कैसा पाश अजब
ख्वाब सुनहरा टूटे प्रति दिन
ज्ञातव्य जिसे छोड़ना किसी पल
भूल भुलैय्या के इस नभ मे
करते फिर भी विचरण सारे
ठोकरो से हुए कुछ आहट
बने है कुछ इस जग मे निष्ठुर
हंसी खेल का धरे छद्म वेश
लोग छिपाते व्यथा ये मन की
चंचल चित्त का मोह यह भारी
गिरने पर भी...