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कस्तूरी
चल रहा होकर बेफिकर
मोह का कैसा पाश अजब
ख्वाब सुनहरा टूटे प्रति दिन
ज्ञातव्य जिसे छोड़ना किसी पल
भूल भुलैय्या के इस नभ मे
करते फिर भी विचरण सारे
ठोकरो से हुए कुछ आहट
बने है कुछ इस जग मे निष्ठुर
हंसी खेल का धरे छद्म वेश
लोग छिपाते व्यथा ये मन की
चंचल चित्त का मोह यह भारी
गिरने पर भी दरिया ही भाये
नित्य सजी सी मोहक किरणे
रहती आतुर नूतन प्रभा को
जिन्हे भान शाम ढलने का
बड़ा गजब है धीरज इसका
बिलख कर भी तोड़ा न नाता
बन भंवरा भावो को लपेटे
गुंजन करता दिवा स्वप्न में
है विचित्र कैसी यह व्यवस्था
करे वरण सब जान जहर का
अतुलित है यह चंचल मन भी
है विलग जब अन्त सफर का
क्यो संवारे भावो को सुमन सा
शूल से फिर यह आकर चुभते
बन यादो के प्रस्तर सा क्षण
बेढब सा है नियम यह जग का
जीवन सारा मधुबन मे बिताया
वो जो कभी हाथ न आया