...

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वो जो तुमसे लगते रहे!
भावनाओं की कचहरी में
उन पर लगता रहा इल्ज़ाम
पत्थर दिल होने का
वो चुपचाप पथरीली अहल्याओं को
अपने स्नेहिल स्पर्श से पुचकारते रहे।

चाहे तो कोई उन्हें कहता रहे
छलिया, वस्त्रचोर इत्यादि
लेकिन हिसाब और उसूलों के पक्के
वो एक -एक सूत द्रौपदियों को लौटाते रहे।

जब नारीवाद की एक अदालत में
उन्हें पूरी तरह से शोषक उत्पीड़क
घोषित कर ही दिया गया था
वो तब भी प्रथाओं की आग में
जलती सतियों को बचाते रहे
कभी राजाराम कभी अंबेडकर तो कभी
ज्योतिबा फुले के रूप में ये ईश्वर
बहरी भीड़ को आवाज़ लगाते रहे।

कभी ख़ुद अपनो के ही षड्यंत्रों की मारी
सिंड्रेलाओं की सैंडल और
उनकी मुक्ति का सामान हाथों में लिये
दर दर भटकते उन्हें ढूंढते रहे।
तो कभी अपने ही वजूद से विमुख
स्लीपिंग ब्यूटीज को जगाते रहे।

वो घूमते रहे जंगल जंगल
शहर दर शहर स्नो व्हाइटस के लिए
वो उसके हिस्से का ज़हर भी
स्वयं ही पीते रहे।

हाथ उनके जिम्मेदारियों के कांटो से
लहूलुहान थे फिर भी
उदासी में घिरी प्रेमिकाओं के लिए
वो बार बार बसंत लाते रहे।

गिनती के चंद बुरे अपवादों को ही
संसार का सत्य समझने वाली
दुनियावी हकीकत की मारी
आभासी रिश्तों की जिरह को
एक सिरे से ही नकार देने वाली
होशियार लड़कियों को
वो दुनिया देखने के लिए
नये उदाहरण, नई मिसाल
नई नज़र देते रहे।

कटु अनुभवों से कड़वी हो चली
कुछ यादों को
वो अपनेपन की शहद चटाते रहे।

कभी दोस्त, कभी आईना तो कभी अजनबी
घर के बाहर भी वो घर लगते रहे।

मैंने उनके चेहरे को बार बार देखा
हर बार वो तुमसे ही लगते रहे।

© Neha Mishra "प्रियम"
02/02/2022