...

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सुरूर से सच्चाई तक
वो कैसा सुरूर होता है,
जो उतर जाता है सर से,
वो वक्त भी मगरुर होता है,
जो गुज़र जाता है शहर से।

सोचता था मुकम्मल हुआ हूं मैं,
किसी की कुर्ब में आ कर,
पर अब आधा भी ना बचा हूं मैं,
इन तनहा राहों में आ कर।

यहां हम रिश्ते जोड़ते हैं,
तनहाई दूर करने के लिए,
फिर साल दर साल गुज़ारते हैं,
उस गहरी तनहाई का ख़ालीपन लिए।

उसी ख़लिश को ज़हन में लिए,
आजकल रोज़ कटती हैं अपनी रातें,
और ख़ामोशी का सिसकता तकिया लिए,
तनहाई मुसलसल करती है मुझसे बातें।

© Musafir