...

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मुहब्बत है इबादत
नहीं ज़िंदगी में है कोई शरारा
बना राख़ का ढ़ेर है जिस्म सारा

नहीं कोई देगा तुम्हें हाथ अपना
कहां डूबते को है मिलता किनारा

है किस को पड़ी दूसरों की खुशी की
किसे दर्द है दूसरों का गवारा

कहो दास्तान-ए-मुहब्बत न अपनी
किसी को न आंसू बहाना गवारा

मुहब्बत बहुत पाक, सौदा नहीं ये
न तू देख इसमें मुनाफा *खसारा

लुटाया खज़ाना मुहब्बत का जिस ने
उसी को मिला है ख़ुदा का सहारा

इबादत समझ कर मुहब्बत करे जो
उसे ढूंढता फिर है आलम ये सारा

*खसारा = घाटा, नुकसान

बहर: 122 122 122 122
© अमरीश अग्रवाल "मासूम"