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रिश्तों की उल्झनें
बातें भूलाकर सारे, रिश्ते फिरसे सुरू करना… होता कहाँ है आसान ?
बीते बहस के चुभती भरी सारी लम्हें… दरार जैसा छोड़ जाता है निशान ।।

ताल्लुकात संभालने के कोशिशों में, समझौता करना पड़ता है असली और नकली में ।
चाहो न चाहो आख़िर में खुद ब खुद समेटे जाते हैं, झूठी दलिल भरी ऐसी पहेली में ।।

तराजू की वो कांटे की तरह हम हैं की दोनो ही तरफ है अपना अपना प्यार और है जिम्मेदारि ।
अंजाने में ही सही एक तरफ ढल जाओ तो दूजा कहने लगता की… मिटगया हमसे रिश्तेदारी ।।

अब जैसे भी हो, झेलकर जीना पड़ेगा ऐसी बेतुकी ज़िंदगी को ।
पसंद आए न आए खुदा को, पर निभाना होगा ऐसी बंदगी को ।।

© सराफ़त द उम्मीदभरे क़लाम