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सुकून
सोचा था तेरे दर पे आएगा कुछ सुकून,
तुमसे भी मुझे लाखों बेचैनियां मिलीं।
जब ज़हर था लहज़ा रहता था कुछ सुकून,
जबसे हैं लफ़्ज़ शहद महरूमियां मिलीं।
हम दो ही तो नहीं थे इस पूरे जहान में,
फिर क्यों एक दूसरे से हमारी बद नसीबियां मिलीं।
जब तक किसी के न हो मेरे बने रहो ,
आख़िर तुमसे मिलकर कुछ अश़आर , कुछ कहानियां मिलीं।।
© khak_@mbalvi
तुमसे भी मुझे लाखों बेचैनियां मिलीं।
जब ज़हर था लहज़ा रहता था कुछ सुकून,
जबसे हैं लफ़्ज़ शहद महरूमियां मिलीं।
हम दो ही तो नहीं थे इस पूरे जहान में,
फिर क्यों एक दूसरे से हमारी बद नसीबियां मिलीं।
जब तक किसी के न हो मेरे बने रहो ,
आख़िर तुमसे मिलकर कुछ अश़आर , कुछ कहानियां मिलीं।।
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