...

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" सुकून की तलाश "
सुकून की तलाश में,
रहा भटकता उम्र-भर,
पर ना मिला अंश भी,
ढूंढा मैंने दर-बदर!

कमाने में दौलत और शौहरत,
उम्र गई पूरी गुज़र,
पर ना मिला सुकून-ए-दिल कहीं,
और रहा अधूरा ही सफर!

सुना था सुख-सुविधा से परिपूर्ण जीवन,
जाता है खुद ब खुद संवर,
पर अलावा उसके...रिश्तो की भीड़ थी पास में मेरे,
पर सुकून ना आया मुझे कहीं नज़र!

बदला माहौल, बदले नज़ारे,
और भटका शहरों में... मैं इधर-उधर,
फिर भी कमी सुकून की,
हर पल थी मुझे रही अखर!

एक रोज़ खड़ा दर्पण के आगे,
तो अक्स आया मेरा मुझे नज़र,
कहे क्यों भटके पगले... खोजता सुकून को,
अब जरा सा कुछ पल को जा तू ठहर!

जरा झांक तो अंतर्मन में भी खुद के,
मैं करता तेरे अंदर ही बसर,
निकल बाहर बवंडर रूपी भंवर से जीवन के अपने,
क्योंकि जीवन है तेरा एक समर!

© Shalini Mathur