...

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कैसे समाज में जी रहे है हम....
हत रे कैसे समाज में जी रहे हूं हम
जहां जन्मोत्सव पर लाखों खर्च हो जाते हैं
न जाने कितनी बधाइयां दुआ और आशीष
बड़े बुजुर्गों से मिल जाती हैं हमे
वही एक समय उन बुजुर्गों के
मरने की दुआएं मांगने लगते हैं लोग
करते हैं इंतजार कब टूट जाए इनके सांसो की डोर
कैसे समाज में जी रहे हैं हम
जिन मां बाप के दुलार में बचपन बिता हमारा
जिनके लाड ने जिंदगी से पहचान कराया हमारा
उन्हीं की उखड़ती सांसो को ,थमती धड़कन को
चुपचाप सुकून से देखना हमारा
ओह !!! कितने क्रूर हो गए हैं हम
कैसे समाज में जी रहे हैं हम......
© Madhumita Mani Tripathi