...

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ना आया
ना ग़ुरूर हो अपने पर इसलिए ख़ुद को बुरा बनाया,
इंसान बने रहने का हुनर इससे ज़्यादा हमें ना आया.

ज़माना लाख कहे नेक हमें पर अपना सच मालूम है,
सब्र नेकी में और बद से मुहतात रहना हमें ना आया.

ख़ुद को ही समझते रहे अकील हम दुनिया की तरह,
सोचे जो दुनिया की तरह, कभी फ़ाज़िल उसे ना पाया.

डरते हैं अब तलक़ दुनियादारी की जिम्मेदारियों से,
मज़ा ये कि अब तक ज़ाहिद भी होना हमें ना आया.

सामने है मेरी सच्चाई और मुझसे उम्मीदें किन्हीं की,
सच जज़्ब कर खरा उतरना उम्मीदों पे हमें ना आया.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'

ग़ुरूर - अभिमान (pride)
मुहतात - सावधान (alert)
अकील - अक्लमंद, बुद्धिमान (wise)
फ़ाज़िल - ज्ञानी, विद्वान (scholar, expert)
ज़ाहिद - संत, संन्यासी (ascetic)
जज्ब - मान लेना, समा लेना (accept, absorb)
एक और ग़ज़ल पेश ए खिदमत है....
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