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तुम्हारे लिए।
तुम्हारे लिए।
कभी इंतहा नजरों में भरकर एक हरक़त गुस्ताख़ी माफ़ पैगाम है।
कभी मेरी भी ग़रीबी नवाजें कोई, जहांमें चाहत आगाह है।
और कुछ तुटकर बिखरी नज्में आगाज़ है।
बस एक नज़र ही उन पन्नों को गां लेता कोई।
जहां मेरी भी कलम तुटे सुरों से कुछ पन्ने भिगोती है।
ऐ रहमत. तारीफ क्या करोगे, मै मिट्टी हि तो हुं।
हैसीयत सिर्फ तोफे में, तुम्हें अल्फ़ाज़ देने की है।
शायराना सपना हि तो है,जो आज दफ़न है कहीं।
कभी इंतहा नजरों में भरकर एक हरक़त गुस्ताख़ी माफ़ पैगाम है।
@kamal
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